"गणपती अथर्वशीर्ष" च्या विविध आवृत्यांमधील फरक
ओळ ४: | ओळ ४: | ||
==इतिहास== |
==इतिहास== |
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==महत्त्व== |
==महत्त्व== |
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==संहिता== |
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==बोल== |
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==शान्तिमंत्र== |
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ॐ शांति : शांतिः शांति : | |
ॐ शांति : शांतिः शांति : | |
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==गणपतीचे आधिदैविक स्वरूप== |
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==सत्य कथन== |
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ऋतम् वच्मि || सत्यं ( सत्यौं ) वच्मि || २|| |
ऋतम् वच्मि || सत्यं ( सत्यौं ) वच्मि || २|| |
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==रक्षणासाठी प्रार्थना== |
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अवोत्तरात्तात् || अव दक्षिणात्तात् || अव चोर्ध्वात्तात् || अवाधरात्तात् || सर्वतो मां पाहि पाहि समंतात् ||३|| |
अवोत्तरात्तात् || अव दक्षिणात्तात् || अव चोर्ध्वात्तात् || अवाधरात्तात् || सर्वतो मां पाहि पाहि समंतात् ||३|| |
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==गणपतीचे आध्यात्मिक स्वरूप==</div> |
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==गणपतीचे स्वरूप== |
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त्वं भूमिरापोऽनलोऽनिलो नभ: || त्वं चत्वारि वाक्पदानि ||५|| |
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⚫ | त्वं गुणत्रयातीत: | त्वं देहत्रयातीत: | त्वं कालत्रयातीत: | त्वं अवस्थात्रयातीतः । त्वं मूलाधारस्थितोऽसि नित्यम् || त्वं ( त्वौं ) शक्तित्रयात्मक: | त्वां योगिनो ध्यायन्ति नित्यम् || त्वम् ब्रहमा त्वम् विष्णुस् त्वम् रुद्रस् त्वम् इन्द्रस् त्वम् अग्निस् त्वं ( त्वौं ) वायुस् त्वम् सूर्यस् त्वम् चंद्रमास् त्वम् ब्रह्मभूर्भुव: स्वरोम् ||६|| |
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==गणेशविद्या== |
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त्वं भूमिरापोनलोनिलो नभ: || त्वन् चत्वारि वाक्पदानि ||५|| |
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⚫ | गणादिम् पूर्वमुच्चार्य वर्णादिस् तदनंतरम् | अनुस्वार: परतर: | अर्धेन्दुलसितम् | तारेण ऋद्धम् | एतत्तव मनुस्वरूपम् | गकार: पूर्वरूपम् | अकारो मध्यमरूपम् | अनुस्वारश्चान्त्यरूपम् | बिंदुरुत्तररूपम् | नादः संधानम् || संहिता (सौंहिता ) संधिः | सैषा गणेशविद्या | गणक ऋषि: | निचृद्गायत्रीछंदः गणपतिर्देवता | ॐ गं गणपतये नम: ||७|| |
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⚫ | त्वं गुणत्रयातीत: | त्वं देहत्रयातीत: | त्वं कालत्रयातीत: | त्वं अवस्थात्रयातीतः । त्वं मूलाधारस्थितोऽसि नित्यम् || त्वं ( त्वौं ) शक्तित्रयात्मक: | त्वां योगिनो ध्यायन्ति नित्यम् || त्वम् |
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⚫ | गणादिम् पूर्वमुच्चार्य |
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एकदंताय विद्महे वक्रतुंडाय धीमहि | तन्नो दंती प्रचोदयात् || ८ || |
एकदंताय विद्महे वक्रतुंडाय धीमहि | तन्नो दंती प्रचोदयात् || ८ || |
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एकदंतं चतुर्हस्तम् पाशमंकुशधारिणम् || रदं च वरदं ( वरदौं ) हस्तैर्बिभ्राणं मूषकध्वजम् | रक्तम् लंबोदरम् शूर्पकर्णकम् रक्तवाससम् || |
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रक्तगंधानुलिप्तांगम् रक्तपुष्पै: सुपूजितम् | भक्तानुकंपिनम् देवं जगत्कारणमच्युतम् | आविर्भूतं च सृष्ट्यादौ प्रकृते: पुरुषात्परम् || एवम् ध्यायति यो नित्यम् स योगी योगिनां(उं) वर: ||९|| |
रक्तगंधानुलिप्तांगम् रक्तपुष्पै: सुपूजितम् | भक्तानुकंपिनम् देवं जगत्कारणमच्युतम् | आविर्भूतं च सृष्ट्यादौ प्रकृते: पुरुषात्परम् || एवम् ध्यायति यो नित्यम् स योगी योगिनां(उं) वर: ||९|| |
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==नमन==</div> |
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नमो व्रातपतये नमो गणपतये नम: प्रमथपतये |
नमो व्रातपतये नमो गणपतये नम: प्रमथपतये नमस्तेऽस्तु लंबोदरायैकदंताय विघ्ननाशिने शिवसुताय वरदमूर्तये नम: || १० || |
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==फलश्रुति==</div> |
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एतदथर्वशीर्षम् योऽधीते || स ब्रह्मभूयाय कल्पते || स् सर्वविघ्नैर्न बाध्यते || स सर्वत: सुखमेधते || स पञ्चमहापापात्प्रमुच्यते || सायमधीयानो दिवसकृतम् पापन् नाशयति || प्रातरधीयानो रात्रिकृतम् पापन् नाशयति || सायं प्रात: प्रयुंजानो अपापो भवति || सर्वत्राधीयानोऽपविघ्नो भवति | धर्मार्थकाममोक्षं च विंदति || |
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इदम्अथर्वशीर्षम् अशिष्याय न देयम्|| यो यदि मोहाद्दास्यति || स |
इदम्अथर्वशीर्षम् अशिष्याय न देयम्|| यो यदि मोहाद्दास्यति || स पापीयान् भवति || सहस्रावर्तनात् यं (यैं) यं काममधीते तं तमनेन साधयेत्||११|| |
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अनेन |
अनेन गणपतिम् अभिषिंचति || स वाग्मी भवति || चतुर्थ्यामनश्नञ्जपति || स विद्यावान्भवति || इत्यथर्वणवाक्यम्|| ब्रह्माद्यावरणं (णौं) विद्यात्|| न बिभेति कदाचनेति || १२ || |
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यो दूर्वांकुरैर्यजति || स वैश्रवणोपमो भवति || यो लाजैर्यजति || स यशोवान्भवति || स मेधावान्भवति || यो मोदकसहस्रेण यजति || स वांछितफलमवाप्नोति || |
यो दूर्वांकुरैर्यजति || स वैश्रवणोपमो भवति || यो लाजैर्यजति || स यशोवान्भवति || स मेधावान्भवति || यो मोदकसहस्रेण यजति || स वांछितफलमवाप्नोति || |
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यः साज्यसमिदभिर्यजति || स सर्वम् लभते स सर्वम् लभते || अष्टौ ब्राह्मणान्सम्यग्राहयित्वा || सूर्यवर्चस्वी भवति || सूर्यग्रहे महानद्यां प्रतिमासंनिधौ वा |
यः साज्यसमिदभिर्यजति || स सर्वम् लभते स सर्वम् लभते || अष्टौ ब्राह्मणान्सम्यग्राहयित्वा || सूर्यवर्चस्वी भवति || सूर्यग्रहे महानद्यां प्रतिमासंनिधौ वा जप्त्वा सिद्धमंत्रो भवति || महाविघ्नात्प्रमुच्यते | महादोषात्प्रमुच्यते || महापापात्प्रमुच्यते || स सर्वविद्भवति स सर्वविद्भवति || य एवं वेद इत्युपनिषत् ||१३|| |
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==शान्तिमंत्र== |
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ॐ सह नाववतु | सह नौ भुनक्तु | सह वीर्यं करवावहै | तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै || |
ॐ सह नाववतु | सह नौ भुनक्तु | सह वीर्यं करवावहै | तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै || |
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ॐ शांति : शांतिः शांति : | |
ॐ शांति : शांतिः शांति : | |
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ओळ ५२: | ओळ ७२: | ||
ॐ शांति : शांतिः शांति : । |
ॐ शांति : शांतिः शांति : । |
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इति श्री गणपती |
इति श्री गणपती अथर्वशीर्ष: समाप्तः । |
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==अर्थ== |
==अर्थ== |
१०:५२, १३ एप्रिल २०१० ची आवृत्ती
हिंदू धर्मग्रंथावरील लेखमालेचा भाग | |
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श्री गणेश अथर्वशीर्ष हे गणपतीचे एक स्तोत्र आहे.
इतिहास
महत्त्व
संहिता
शान्तिमंत्र
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा: भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्रा: स्थिरैरंगैस्तुष्टुवांसस्तनूर्भिर्व्यशेम देवहितं (देवहितैं) यदायु: ||१|| ॐ स्वस्ति न इंद्रो वृद्धश्रवा: स्वस्ति न: पूषा विश्ववेदाः | स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ||२|| ॐ तन्मा अवतु। तद् वक्तारमवतु। अवतु माम्। अवतु वक्तारम् ॐ शांति : शांतिः शांति : |
गणपतीचे आधिदैविक स्वरूप
ॐ नमस्ते गणपतये || त्वमेव प्रत्यक्षं तत्वमसि || त्वमेव केवलं कर्तासि || त्वमेव केवलं धर्तासि || त्वमेव केवलं हर्तासि ||त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि || त्वं ( त्वौं ) साक्षादात्मासि नित्यम् ||१||
सत्य कथन
ऋतम् वच्मि || सत्यं ( सत्यौं ) वच्मि || २||
रक्षणासाठी प्रार्थना
अव त्वं माम् || अव वक्तारम् || अव श्रोतारम् || अव दातारम् || अव धातारम् || अवानूचानमव शिष्यम् || अव पश्चात्तात् || अव पुरस्तात् || अवोत्तरात्तात् || अव दक्षिणात्तात् || अव चोर्ध्वात्तात् || अवाधरात्तात् || सर्वतो मां पाहि पाहि समंतात् ||३||
त्वं वाङ्मयस्त्वं चिन्मय: || त्वमानंदमयस्त्वं ब्रह्ममय: || त्वं ( त्वौं ) सच्चिदानंदाद्वितीयोऽसि | त्वं ( त्वौं ) प्रत्यक्षं ब्रह्मासि | त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽसि ||४ ||
गणपतीचे स्वरूप
सर्वं जगदिदं त्वत्तो जायते || सर्वं जगदिदं त्वत्तस्तिष्ठति || सर्वंन् जगदिदं त्वयि लयमेष्यति || सर्वं जगदिदं त्वयि प्रत्येति ||
त्वं भूमिरापोऽनलोऽनिलो नभ: || त्वं चत्वारि वाक्पदानि ||५|| त्वं गुणत्रयातीत: | त्वं देहत्रयातीत: | त्वं कालत्रयातीत: | त्वं अवस्थात्रयातीतः । त्वं मूलाधारस्थितोऽसि नित्यम् || त्वं ( त्वौं ) शक्तित्रयात्मक: | त्वां योगिनो ध्यायन्ति नित्यम् || त्वम् ब्रहमा त्वम् विष्णुस् त्वम् रुद्रस् त्वम् इन्द्रस् त्वम् अग्निस् त्वं ( त्वौं ) वायुस् त्वम् सूर्यस् त्वम् चंद्रमास् त्वम् ब्रह्मभूर्भुव: स्वरोम् ||६||
गणेशविद्या
गणादिम् पूर्वमुच्चार्य वर्णादिस् तदनंतरम् | अनुस्वार: परतर: | अर्धेन्दुलसितम् | तारेण ऋद्धम् | एतत्तव मनुस्वरूपम् | गकार: पूर्वरूपम् | अकारो मध्यमरूपम् | अनुस्वारश्चान्त्यरूपम् | बिंदुरुत्तररूपम् | नादः संधानम् || संहिता (सौंहिता ) संधिः | सैषा गणेशविद्या | गणक ऋषि: | निचृद्गायत्रीछंदः गणपतिर्देवता | ॐ गं गणपतये नम: ||७||
एकदंताय विद्महे वक्रतुंडाय धीमहि | तन्नो दंती प्रचोदयात् || ८ ||
एकदंतं चतुर्हस्तम् पाशमंकुशधारिणम् || रदं च वरदं ( वरदौं ) हस्तैर्बिभ्राणं मूषकध्वजम् | रक्तम् लंबोदरम् शूर्पकर्णकम् रक्तवाससम् || रक्तगंधानुलिप्तांगम् रक्तपुष्पै: सुपूजितम् | भक्तानुकंपिनम् देवं जगत्कारणमच्युतम् | आविर्भूतं च सृष्ट्यादौ प्रकृते: पुरुषात्परम् || एवम् ध्यायति यो नित्यम् स योगी योगिनां(उं) वर: ||९||
नमो व्रातपतये नमो गणपतये नम: प्रमथपतये नमस्तेऽस्तु लंबोदरायैकदंताय विघ्ननाशिने शिवसुताय वरदमूर्तये नम: || १० ||
एतदथर्वशीर्षम् योऽधीते || स ब्रह्मभूयाय कल्पते || स् सर्वविघ्नैर्न बाध्यते || स सर्वत: सुखमेधते || स पञ्चमहापापात्प्रमुच्यते || सायमधीयानो दिवसकृतम् पापन् नाशयति || प्रातरधीयानो रात्रिकृतम् पापन् नाशयति || सायं प्रात: प्रयुंजानो अपापो भवति || सर्वत्राधीयानोऽपविघ्नो भवति | धर्मार्थकाममोक्षं च विंदति ||
इदम्अथर्वशीर्षम् अशिष्याय न देयम्|| यो यदि मोहाद्दास्यति || स पापीयान् भवति || सहस्रावर्तनात् यं (यैं) यं काममधीते तं तमनेन साधयेत्||११||
अनेन गणपतिम् अभिषिंचति || स वाग्मी भवति || चतुर्थ्यामनश्नञ्जपति || स विद्यावान्भवति || इत्यथर्वणवाक्यम्|| ब्रह्माद्यावरणं (णौं) विद्यात्|| न बिभेति कदाचनेति || १२ ||
यो दूर्वांकुरैर्यजति || स वैश्रवणोपमो भवति || यो लाजैर्यजति || स यशोवान्भवति || स मेधावान्भवति || यो मोदकसहस्रेण यजति || स वांछितफलमवाप्नोति || यः साज्यसमिदभिर्यजति || स सर्वम् लभते स सर्वम् लभते || अष्टौ ब्राह्मणान्सम्यग्राहयित्वा || सूर्यवर्चस्वी भवति || सूर्यग्रहे महानद्यां प्रतिमासंनिधौ वा जप्त्वा सिद्धमंत्रो भवति || महाविघ्नात्प्रमुच्यते | महादोषात्प्रमुच्यते || महापापात्प्रमुच्यते || स सर्वविद्भवति स सर्वविद्भवति || य एवं वेद इत्युपनिषत् ||१३||
शान्तिमंत्र
ॐ सह नाववतु | सह नौ भुनक्तु | सह वीर्यं करवावहै | तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै || ॐ शांति : शांतिः शांति : |
ॐ भद्रंकर्णेर्भिः शृणुयाम देवा: भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्रा: स्थिरैरंगैस्तुष्टुवांसस्तनूभिर् व्यशेम देवहितं यदायु: ||१||
ॐ स्वस्ति न इंद्रो वृद्धश्रवा: स्वस्ति न: पूषा विश्ववेदाः | स्वस्ति नस्तार्क्षो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ||२||
ॐ शांति : शांतिः शांति : । इति श्री गणपती अथर्वशीर्ष: समाप्तः ।
अर्थ
भगवान श्रीगणेशांना नमस्कार असो.
ॐ हे देवांनो, आम्ही कानांनी शुभ ऎकावे. यजन करणार्या आम्हांस डोळ्यांनी कल्याणच दिसावे. सुदृढ अवयवांनी व शरीरांनी युक्त असलेल्या आम्ही स्तवन करीत करीत देवांनी दिलेलें जे आयुष्य असेल तें घालवावे. ॥१॥
ॐ ज्याची किर्ती वृद्धांपासून (परंपरेने) ऎकिवांत आहे तो इंद्र आमचें कल्याण करो. सर्वद्न्य व सर्वसंपन्न असा पूषा (सूर्य) आमचे कल्याण करो. ज्याची गती अकुंठित आहे असा तार्क्ष्य (गरूड) आमचे कल्याण करो. बृहस्पती आमचे कल्याण वृद्धिंगत करो. ॥२॥
ॐ तें (श्रीगजाननरूपी तेज) माझें रक्षण करो. पठण करणाराचे रक्षण करो. (पुनश्च सांगतों) तें माझें रक्षण करो व पठण करणाराचे रक्षण करो. ॥३॥
ॐ त्रिवार शांति असो.
श्रीगणेश अथर्वशीर्षाचा अर्थ:
ॐ गणांचा नायक असलेल्या तुला नमस्कार असो. तूंच प्रत्यक्ष आदितत्व आहेस. तूंच केवळ (सर्व जगाचा) निर्माता आहेस. तूंच केवळ (विश्वाचे) धारण करणारा आहेस. तूंच केवळ संहार करणारा आहेस. तूंच खरोखर हें सर्व ब्रम्ह आहेस. तूं प्रत्यक्ष शाश्वत आत्मतत्व आहेस. ॥१॥
मी ऋत आणि सत्य (या परमत्म्याच्या दोन्ही अंगांना अनुलक्षून वरील सर्व) म्हणत आहें. ॥२॥
तूं माझें रक्षण कर. वक्त्याचे (तुझें गुणवर्णन करणार्यारचें) रक्षण कर. श्रोत्याचें रक्षण कर. (शिष्यास उपासना) देणार्यासचे (गुरूचें) रक्षण कर. (ती उपासना) धारण करणार्यायचे (शिष्याचे) रक्षण कर. ज्ञानदात्या (गुरूंचें) रक्षण कर. शिष्याचें रक्षण कर. मागच्या बाजूनें रक्षण कर. समोरून रक्षण कर. डावीकडून रक्षण कर. उजवीकडून रक्षण कर. आणि ऊर्ध्व दिशेकडून रक्षण कर. अधर दिशेकडून रक्षण कर. सर्व बाजूंनी सर्व ठिकाणी माझें रक्षण कर. रक्षण कर. ॥३॥
तूं ब्रम्ह आहेस. तूं चैतन्यमय आहेस. तूं आनन्दरूप आहेस. ज्याहून दुसरें कांहींच तत्व नाहीं असें सत्, चित् व आनंद (या रूपांनी प्रतीत होणारें एकच) तत्व तूं आहेंस. तूं प्रत्यक्ष ब्रम्ह आहेस. तूं (नाना प्रकारें नटलेल्या विश्वाचें ज्ञान आहेस. तू (सर्वसाक्षीभूत एकत्वाचें) विशिष्ट असें ज्ञान आहेस. ॥४॥ हें सर्व जग तुझ्यापासून उत्पन्न होतें. हें सर्व जग तुझ्यामुळें स्थिर राहतें. हें सर्व जग तुझ्या ठिकाणींच परत येऊन मिळतें. तूं पृथ्वी, आप, तेज, वायु व आकाश आहेस. तूं (परा, पश्यंती, मध्यमा व वैखरी ही) वाणीची चार रूपें आहेस. ॥५॥
तूं (सत्व, रजस् व तमस्) या त्रिगुणांच्या पलीकडे आहेस. तूं (स्थूलदेह, सूक्ष्मदेह व कारणदेह) या देहत्रयांच्या पलीकडचा (महाकारण) आहेस. तूं (जाग्रद्वस्था, स्वप्नावस्था व सुषुप्तावस्था) या तीन अवस्थांच्या पलीकडचा (तुर्यावस्थारूप) आहेस. तूं (भूत, वर्तमान व भविष्यत्) या तिन्ही कालांच्या पलीकडचा आहेस. (मनुष्यशरीरांतील) मूलाधारचक्रांत तूं नेहमी स्थित आहेस. तूं (इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति व क्रियाशक्ति या) तिन्ही शक्तींचा आत्मा आहेस. योगी तुझें नित्य ध्यान करितात. तूं ब्रम्हदेव, तूंच विष्णु, तूंच रूद्र, तूंच इंद्र, तूंच अग्नि, तूंच वायु, तूंच सुर्य, तूंच चंद्र, तूंच ब्रह्म, तूंच भू:, तूंच भुव:, तूंच स्व: व तूंच ॐकार आहेस. ॥६॥
’गण’ शब्दाचा आदिवर्ण ‘ग्’ याचा प्रथम उच्चार करून वर्णांतील प्रथमवर्ण ‘अ’ याचा उच्चार केला. त्याचे समोर अनुस्वार अर्ध्चंद्राकार शोभणार्याा ॐकारानें युक्त (असा उच्चार केला कीं) हें तुझ्या बीजमन्त्राचे (ग्ँ) रूप होय. गकार हें पुर्वरूप, अकार मध्यरूप, अनुस्वार अन्त्यरूप व (प्रणवरूप) बिंदु (हें पुर्वीच्या तिन्हींना व्यापणारें) उत्तररूप होय. या (सर्वां) चे एकीकरण करणारा नाद होय. सर्वांचें एकत्रोच्चारण म्हणजेच सन्धि. (अशा रीतीनें बीजमन्त्र सिद्ध होणें) हीच ती गणेशविद्या. (या मंत्राचा) गणक ऋषी आहे. (या मंत्राचा) निच्ऋद्गायत्री हा छन्द (म्हणण्याचा प्रकार) आहे. गणपति देवता आहे. ‘ॐ गं गणपतये नम:।‘ (हा तो अष्टाक्षरी मन्त्र होय.) ॥७॥
आम्ही एकदन्ताला जाणतों. आम्ही वक्रतुंडाचे ध्यान करतों. त्यासाठी एकदन्त आम्हांस प्रेरणा करो. ॥8॥ (या भागास गणेशगायत्री असे म्हणतात.) ॥८॥
एक दांत असलेला, चार हात असलेला, (उजव्या बाजूच्या वरच्या हातापासून प्रदक्षिणाक्रमानें त्याच बाजूच्या खालच्या हातापर्यंत) अनुक्रमें पाश, अंकुश, दांत व वरदमुद्रा धारण करणारा, ध्वजावर मूषकाचें चिन्ह असणारा, तांबड्या रंगाचा, लांबट उदर असलेला, सुपासारखे कान असलेला, रक्तवस्त्र धारण करणारा, तांबड्या (रक्तचंदनाच्या) गन्धानें ज्याचे अंग विलेपित आहे असा, तांबड्या पुष्पांनी ज्याचें उत्तम पूजन केले आहे असा, भक्तांवर दया करणारा, सर्व जगाचें कारण असणारा, अविनाशी, सृष्टीच्या आधींच प्रगट झालेला, प्रकृतिपुरूषापलीकडचा देव, असें जो नित्य ध्यान करतो तो योगी, (किंबहुना) योग्यांत श्रेष्ठ होय. ॥९॥
व्रतांचा समूह म्हणजेच तपश्चर्या. तिच्या अधिपतीस नमस्कार असो. गणांच्या नायकार नमस्कार असो. सर्व अधिपतींतील प्रथम अधिपतीस नमस्कार असो. लंबोदर, एकदन्त, विघ्ननाशी, शिवसुत अशा श्रीवरदमुर्तीला नमस्कार असो. ॥१०॥
या अथर्वशीर्षाचे जो अध्ययन करतो तो ब्रम्हरूप होतो. त्याला कोणत्याच विघ्नांची बाधा होत नाहीं. तो सर्व बाजूंनी सुखांत वाढतो. (हिंसा, अभक्ष्यभक्षण, परदारागमन, चौर्य व पापसंसर्ग) या पांचही महापापांपासून मुक्त होतो. संध्याकाळी पठण करणारा दिवसा (अज़ाणपणे) केलेल्या पापाचा नाश करतो. सकाळीं पठण करणारा रात्रीं (नकळत) केलेल्या पापांचा नाश करतो. संध्याकाळीं व सकाळीं पठण करणारा पाप (प्रवृत्ती) रहित होतो. सर्व ठिकाणी (याचे) अध्ययन करणारा विघ्नमुक्त होतो. धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष मिळवितो. हें अथर्वशीर्ष (अनधिकारी) शिष्य-भाव नसलेल्या माणसाला सांगूं नये. जर कोणी अशा अनधिकार्याीस मोहाने देईल तर तो मोठाच पापी होतो. या अथर्वशीर्षाच्या सहस्त्र आवर्तनांनी जी जी कामना मनुष्य करील ती ती या योगें सिद्ध होईल. ॥११॥
या अथर्वशीर्षानें जो गणपतीला अभिषेक करतो, तो उत्त्म वक्ता होतो, चतुर्थीच्या दिवशी कांहीं न खातां जो याचा जप करतो तो विद्यासंपन्न होतो, असें अथर्वण ऋषींचें वाक्य आहे. (याचा जप करणार्याीला) ब्रह्म व आद्या (म्हणजे माया) यांचा विलास कळेल. तो कधींच भीत नाहीं. ॥१२॥ जो दुर्वांकुरांनी हवन करतो तो कुबेरासम होतो. जो साळीच्या लाह्यांनी हवन करतो, तो यशस्वी सर्वंकष बुद्धिमान् होतो. जो सहस्त्र मोदकांनी हवन करतो, त्याला इष्ट्फल प्राप्त होते. जो घृतयुक्त समिधांनीं हवन करतो त्याला सर्व मिळते, अगदी सर्व काही प्राप्त होतें. ॥१३॥
आठ ब्राम्हणांना योग्य प्रकारें (याचा) उपदेश केल्यास, करणारा सूर्यासारखा तेजस्वी होतो. सूर्यग्रहणांत, महानदीतीरीं किंवा गणपति प्रतिमेसंनिध जप केल्यास हा मंत्र सिद्ध होतो. (असा मंत्र सिद्ध करणारा) महाविघ्नापासून मुक्त होतो. महादोषापासून मुक्त होतो. महापापापासून मुक्त होतो. तो सर्वज्ञ होतो. तो सर्वसंपन्न होतो, जो हें असें जाणतो. असें हें उपनिषद् आहे. ॥१४॥