"सदस्य:Sohan wankhade" च्या विविध आवृत्यांमधील फरक
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ओळ १: | ओळ १: | ||
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'''मर्म''' |
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जे दिसायचे नव्हते, |
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ते दाखवून गेलास तू। |
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मर्म हे माझ्या दुःखाचे, |
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उघडे पाडून गेलास तू।। |
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आयुष्यात वाटले मिळेल, |
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मलाही कधीतरी रे सुख। |
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पण क्षणात मृगजळसमान, |
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हरवून गेलास तू।। |
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मर्म हे माझ्या दुःखाचे, |
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उघडे पाडून गेलास तू।। |
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कवी : सोहन वानखडे |
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'''कष्ट''' |
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जन्म हा कष्टाचा, |
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जगण्याचा मोह जडे। |
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सुखाचा शोध सुरु, |
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नि विश्वाभ्रमंन दुखाकडे।। |
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हाल हे सोसाया, |
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झाली विश्वनिर्मिती। |
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गरिबांचेच हात पुढे, |
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काय हीच धनिष्ठांची नीती।। |
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बालपण हे गेले वाया, |
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कष्टाचेच मिळे हाती फळ। |
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भासताच झाले सार्थक, |
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नि कोसळले आभाळ।। |
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जीव मुठीत बांधुनी, |
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जगण्यासाठी उठती कळा। |
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कष्टानेच झाला मृत्यू, |
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अन जीवन मार्ग आता मोकळा।। |
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जीवन मार्ग आता मोकळा।। |
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कवी : सोहन वानखडे |
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'''।।माणुसकीचा श्वास मोकळा।।''' |
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आताची हि पापी दुनिया, |
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विचार न करणार समतेचा। |
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निर्दय बनूनि अपमान करी, |
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त्या स्वाभिमानी स्त्रीत्वाचा।। |
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कसली स्थिती निर्माण जाहली, |
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आहे काय स्वातंत्र्य तयांना। |
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पाहू शकणार न मान उंच करुनि, |
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असला दिला का जन्म स्त्रियांना।। |
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मातृत्वाच्या छायेखाली, |
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ओघ पसरला करुणेचा। |
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कसला फुटला बांध हा आता, |
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असल्या क्रोधी मानवांचा।। |
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विचार न करता घेऊन निर्णय, |
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श्वास सोडता सुटकेचा। |
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मातृत्वाला दोष देऊनि, |
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करिता सौदा कोवड्या जीवाचा।। |
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जन्म जाहला जाईल वाया, |
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सोसुनी ह्या अवकळा। |
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भ्रूणहत्येचा मार्ग सोडूनि, |
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घ्या माणुसकीचा श्वास मोकळा।। |
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कवी : सोहन वानखडे |
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'''पत्त्याचा डाव''' |
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लोक असतात बिनविचारी, |
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भरते भुतांचा बाजार। |
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लागतात वाईट सवयी, |
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होतात देशी प्याला लाचार।। |
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भुकेले असतात घरचे त्यांच्या, |
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बसतो गरिबीचा घाव। |
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मुलंही चालतात त्याच मार्गाला, |
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मग सुटतो पैशांचा हाव।। |
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खेळतात वरली पत्ते, |
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आहे भयानक रोगाचे नाव। |
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तरीही संपत नाही, |
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त्यांचा पत्त्यांचा डाव।। |
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परिस्थितीचा आव आणून, |
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होई शिक्षणाचा अभाव। |
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प्रगतीचा मार्ग बंद करुनि, |
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होत नाही संसाराचा निभाव।। |
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असले नसले पैसे लावून, |
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करतात इज्जतीचा भाव। |
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हाती उरत नाही काही तेव्हा, |
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तमाशा पाहते सर्वच गाव।। |
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खेळतात वरली पत्ते, |
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आहे भयानक रोगाचे नाव। |
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तरी संपत नाही, |
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त्यांचा पत्त्यांचा डाव।। |
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वाढली लोकसंख्या, |
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म्हणून वाढली बेरोजगारी। |
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महागाईचा बोजा वाढवत, |
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सुटले सरकारी अधिकारी।। |
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पकडतात पोलीस, |
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मग होते धावा धाव। |
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भरावे लागतात पैसे, |
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तर कधी मिळतो रट्यांचा ताव।। |
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खेळतात वरली पत्ते, |
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आहे भयानक रोगाचे नाव। |
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तरी संपत नाही, |
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त्यांचा पत्त्याचा डाव।। |
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कवी : सोहन वानखडे |
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'''आयुष्याच्या वाटेवर''' |
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आयुष्याच्या वाटेवर तुला शोधितो, |
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कधी स्वप्नात तर कधी स्वर्गात। |
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गंधात गंध ही तुझाच दरवळतो, |
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कधी कळ्यात तर कधी फुलात।। |
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असंख्य शब्द ही स्तुतिस अपुरे पडतील, |
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तू माझी प्रेरणा आणि तूच माझा श्वास।। |
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बंद नजरेनेही नकळत प्रिये भेटशील, |
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तू माझे विश्व नि तूच माझा आभास।। |
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तुजविण सखे ना येत विचार ही कसला, |
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तुला स्मरून मी तुझ्यासाठीच झुरतो। |
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कसा जगू नसताना तू जीवनी, |
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ना भूतो ना भविष्य सहन होईल विरह तो।। |
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आयुष्याच्या वाटेवर सदैव तुला शोधितो, |
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कधी स्वप्नात तर कधी स्वर्गात। |
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गंधात गंध ही तुझाच दरवळतो, |
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कधी कळ्यात तर कधी फुलात।। |
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कवी : सोहन वानखडे |
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'''।। शिदोरी ।।''' |
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कोणास का कधी कळावे, |
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नसे सोबती का मागे वळून बघावे। |
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सुटतो साथ मग आप्तजनांचा, |
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मनी प्रश्न पडे कधी हसवावे नि कधी रडवावे।। |
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कोणास का कधी कळावे, |
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शब्द हे त्याचे नि बोल हि त्याचेच। |
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आयुष्याला नसे साथ कोणाची, |
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जन्म हा त्याचा नि मरणही त्याचेच।। |
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कोणास का कधी कळावे, |
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वाटेवरील मरण कसे पचवावे। |
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सुख-दुःखाची होईल शेवटी बेरीज, |
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उरले शिल्लक काहीच नसावे।। |
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कोणास का कधी कळावे , |
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अन कित्येक विचार उरी उफाडावे। |
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जणू सागरास जाऊनि भिडावे, |
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जाता जाता सुंदर क्षण आठवावे।। |
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कोणास का कधी कळावे...।। |
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कवी : सोहन वानखडे |
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'''।। परछायी ।।''' |
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मुश्किल सी राह है, |
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ओर वक्त कटता नही। |
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कैसे करू गुजारा अब, |
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सासे भी संभलती नही।। |
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बस वो यादे थी साथ, |
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ओर आधे अधुरे सपणे। |
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मन की इन मनमानीयो मे, |
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हमसे रुठ गये सब अपने।। |
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जमाना गुजर रहा है, |
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लेकिन हम जमाणे मे नही। |
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अकेले ही चल रहे है, |
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अपना कोई ठिकाणा कही।। |
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अब मुडकर भी ना देखु पिछे, |
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आगे अंधेरा ही सही। |
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दायरा भी ना देखा हमने, |
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छोडी धुंदली परछायी वहि।। |
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कवी : सोहन वानखडे |
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'''।। मौन किनारा ।।''' |
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नसता हा उन्मत्त होऊनि, |
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खाजील स्वर उदगारे। |
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चिंतेच्या थारोड्यात पहुडलो, |
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अंगावर उठती शहारे।। |
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समजून घ्या नंतर बोला, |
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नको ती हास्य वल्गना। |
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शब्दाने शब्दाला हरवण्या, |
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अभ्यास असावा जुना।। |
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माझा मी कधी न झुकणारा, |
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कर्तृत्वाचे सामर्थ्य उरी। |
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शब्दरूपी अपमान संपवण्या, |
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उजळे ज्ञान तेज मग भारी।। |
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काय सांगावे कसे सांगावे, |
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कळला ना हा अर्थ कोना। |
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किती येतील नि येतच राहतील, |
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साचेल ढीग शब्दांचा पुन्हा।। |
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शब्दांनी जग वैरी झाले, |
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जण आपुलकी ही हरवली। |
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आवरता न आवरे आता, |
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माझी स्वाभिमानी सावली।। |
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पुरे झाले हे शब्द पुराण, |
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नकोच असला निवारा। |
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असह्य झाले ऐकणे आता, |
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मी धरला मौन किनारा।। |
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मी धरला मौन किनारा।। |
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कवी : सोहन वानखडे |
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माझा मी नि मी कुठला |
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धरती माझी माय मी मातीतला ... |
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ऋण माझ्यावर या मायेचे |
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हिरवळ काया मी तिच्या कुशीतला ... |