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भिक्खूणीसंघाचे संघठन सुद्धा बरेचसे भिक्खूसंघाच्या आधारावरच झाले आहे. कुठलाही भेदभाव न करता, आध्यात्मिक जीवनात मग्न समाजाच्या सर्व स्तरातील महिलांसाठी त्याचे दरवाजे उघडे होते. राजपरीवारातील महिलांपासून ते दीन-दुःखी परिवारातील महिला संघात सामील होत्या. त्या सर्व सामाजिक विषमतांना त्यागून एकच पवित्र उद्देश्याने प्रेरित होऊन संघाची सदस्या (भिक्खूणी) बनल्या होत्या. त्या साधिकांच्या वैराग्याच्या मागे अनेक कारण होते. बहुतांश साधिकांनी प्रियजनांच्या वियोगाने आणि सांसारीक जीवनापासून कंटाळून संघात प्रवेश केला होता. सर्वांना उद्देश्य परम शांतीची प्राप्ती होता. [[अर्हत|अर्हत्व]]ाच्या प्राप्ती नंतर [[निर्वाण]]ाच्या परम शांतीची अनुभूतीमध्ये त्या सर्वांना एकाच स्वरात गाताना ऐकतात-- ''सीतिभूतम्हि निब्बुता अर्थात शीतिभूत झालेली आहे, उपशांत झालेली आहे.''
भिक्खूणीसंघाचे संघठन सुद्धा बरेचसे भिक्खूसंघाच्या आधारावरच झाले आहे. कुठलाही भेदभाव न करता, आध्यात्मिक जीवनात मग्न समाजाच्या सर्व स्तरातील महिलांसाठी त्याचे दरवाजे उघडे होते. राजपरीवारातील महिलांपासून ते दीन-दुःखी परिवारातील महिला संघात सामील होत्या. त्या सर्व सामाजिक विषमतांना त्यागून एकच पवित्र उद्देश्याने प्रेरित होऊन संघाची सदस्या (भिक्खूणी) बनल्या होत्या. त्या साधिकांच्या वैराग्याच्या मागे अनेक कारण होते. बहुतांश साधिकांनी प्रियजनांच्या वियोगाने आणि सांसारीक जीवनापासून कंटाळून संघात प्रवेश केला होता. सर्वांना उद्देश्य परम शांतीची प्राप्ती होता. [[अर्हत|अर्हत्व]]ाच्या प्राप्ती नंतर [[निर्वाण]]ाच्या परम शांतीची अनुभूतीमध्ये त्या सर्वांना एकाच स्वरात गाताना ऐकतात-- ''सीतिभूतम्हि निब्बुता अर्थात शीतिभूत झालेली आहे, उपशांत झालेली आहे.''


==न==
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थेरियों के उदानों से उस समय की महिलाओं की सामाजिक स्थिति पर भी प्रकाश पड़ता है। [[इसिदासि]] की जीवनी से मालूम होता है कि उस समय कुछ लोगों में तलाक की प्रथा प्रचलित थी। इसिदासि का विवाह तीन-तीन बार हुआ था। उस सामंत युग में बहुपत्नी प्रथा प्रचलित थी। कई थेरियाँ अपने उदानों में इस बात का उल्लेख करती हैं। उस समय नगरशोभिनियों की प्रथा भी प्रचलित थी। [[भगवान् बुद्ध]] ने उसके विरुद्ध अपनी आवाज उठाई थी। उनकी शिक्षाओं से प्रभावित होकर उस वृत्ति को छोड़कर कितनी महिलाएँ पवित्र जीवन व्यतीत करने लगीं। [[अंबपालि]], [[अड्टकासि]] और [[विमला]] उनमें से हैं। वे अपने उदानों में उस जीवन का उल्लेख करती हैं। महिलाएँ विद्यालाभ कर विदुषी भी बन सकती थीं। [[कुंडलकेसी]] और [[नंदुत्तरा]] इसके उदाहरण हैं। शिक्षा ग्रहण करने के बाद दोनों देश में भ्रमण करती हुई धर्म और दर्शन के विषय में विद्वानों से शास्त्रार्थ करती थीं। धर्म के अनुसरण के विषय में भी महिलाएँ पुरुषों से स्वतंत्र थीं। यह बात [[रोहिनी]] तथा [[भद्दकच्चाना]] की जीवनियों से सिद्ध होती है। उस समय भी समाज में दुष्ट तत्व विद्यमान थे। भिक्षुणियों को भी उनसे सावधान रहना पड़ता था। शुभा थेरी के उदानों से यह बात स्पष्ट हो जाती है। उस परिस्थिति को ध्यान में रखकर बाद में भिक्षुणियों के अरणवास के विषय में कई नियम बनाने पड़े। इस प्रकार थेरियों के उदानों में उस समय की महिलाओं की सामाजिक अवस्था का भी एक चित्र मिलता है। अब हम तीन थेरियों के उदानों के कुछ अंश उदाहरण के रूप में देते हैं।

[[सोमा]], [[राजगृह]] के राज पुरोहित की कन्या थी। भिक्षुणी हो विमुक्तिसुख प्राप्त करने के बाद एक दिन वह ध्यान के लिये अंधवन में बैठ गई। मार ने उसे साधना के पथ से विचलित करने के विचार से कहा -- जो स्थान ऋषियों द्वारा भी प्राप्त करना कठिन है, उसकी प्राप्ति अल्प बुद्धि वाली स्त्रियों द्वारा संभव नहीं। मार का उत्तर देते हुए सोमा ने कहा -- जिसका मन समाधिस्थ है, जिसमें प्रज्ञा है और जिसे धर्मं का साक्षात्कार हुआ है उसके मार्ग में स्त्रीत्व बाधक नहीं होता। मैंने तृष्णा का सर्वथा नाश किया है, अविद्या रूपी अंधकार समूह को विदीर्ण किया है। पापी मार! समझ ले आज तेरा ही अंत कर दिया है।

[[भगवान् बुद्ध]] की मौसी [[महाप्रजापति गौतमी]] ने, जो कि भिक्षुणी संघ की अग्रणी थी, अपने निर्वाण के पहले भगवान के पास जाकर उनसे अंतिम विदा लेते हुए कृतज्ञता के ये शब्द प्रकट किये -
: '' हे बुद्ध वीर! प्राणियों में सर्वोत्तम! आपको नमस्कार। आपने मुझे और बहुत से प्राणियों को दु:ख से मुक्त किया है।........यथार्थ ज्ञान के बिना मैं लगातार संसार में घूमती रही। मैंने भगवान के दर्शन पाए। यह मेरा अंतिम शरीर है। बहुतों के हित के लिये (मेरी बहन) माया देवी ने गौतम को जन्म दिया है, जिन्होंने व्याधि और मरण से त्रस्त प्राणियों के दु:खसमूह के दूर किया है।

विमला, अन्य कई गणिकाओं की तरह, भगवान बुद्ध की शिक्षाओं से प्रभावित होकर प्रव्रजित हो पवित्र जीवन व्यतीत करने लगी। परमपद की प्राप्ति के बाद वह गाती है --
: ''रूप लावण्य, सौभाग्य और यश से मतवाली हो, यौवन के अहंकार में मस्त हो मैं दूसरी स्त्रियों की अवज्ञा करती थी।........शरीर को सजाकर, व्याघ्र की तरह लोगों को फँसाने के लिये जाल बनाती थी, अनेक मायाएँ रचती थी। आज मैं [[भिक्षा]] से जीती हूँ, मेरा सिर मुंडित है, शरीर पर चीवर है। वृक्ष के नीचे ध्यानरत हो अवितर्क समाधि में विहरती हूँ। दैवी और मानुषी सभी कामनाओं के बंधनों को मैंने तोड़ डाला है। सभी चित्त मलों को नाश कर निर्वाण की परम शांति का अनुभव कर रही हूँ।

"परमत्थदीपनी" थेरीगाथा की [[अट्ठकथा]] है। यह पाँचवीं शताब्दी की कृति है और आचार्य [[धर्मपाल]] की है। इसमें थेरियों की जीवनियाँ और उनके उदानों की व्याख्याएँ हैं। इसलिए थेरीगाथा के समझने के लिये यह अत्यंत उपयोगी है।


==हे सुद्धा पहा==
==हे सुद्धा पहा==

१७:२९, २५ नोव्हेंबर २०१७ ची आवृत्ती

थेरीगाथा हा एक बौद्ध ग्रंथ असून तो खुद्दक निकायाच्या १५ ग्रंथांपैकी एक आहे. यात ७३ परमपदप्राप्त विद्वान स्त्रियांनी (भिक्खुणी) आपल्या उद्गारातून रचलेल्या ५२२ गाथांचा संग्रह आहे. थेरी म्हणजे अनुभवी व ज्ञानी स्त्री. पाली भाषेतील या गाथा काव्यस्वरूपात असून त्यांत उत्कट भावनांचा परिपोष आढळतो. हा ग्रंथ १६ वर्गात/भागात विभाजित आहे, जो गाथांच्या संख्येनुसार क्रमाने आहे.


थेरीगाथेमध्ये ज्या भिक्खूणींचा उल्लेख आलेला आहे, त्यातील बहुतांश भगवान बुद्ध यांच्या समकालीन होत्या. एका इसिदाप्तीच्या उदानात भव्य नगरी पाटलिपुत्राचा उल्लेख आला आहे. संभवत: ती सम्राट अशोक यांची राजधानी आहे. यामुळे ग्रंथाचा रचनाकाळ प्रथम बौद्ध संगीती पासून ते तृतीय बौद्ध संगीती पर्यंतचा मानला जातो.

परिचय

थेरीगाथा ही थेरगाथाच्या समान आहे. होय, थेरोंच्या उद्गारात जीवनसंस्मरणांचा उल्लेख कमी आहे. त्यामध्ये विषयांची गंभीरता आणि प्रकृतीचित्रण अधिक आहे. याच्या विपरीत बहुतेक थेरींच्या उद्गारात सुखदु:खाने भरलेले त्यांच्या पूर्व जीवनाचे संस्मरण मिळतात. या प्रकारे त्यांच्या आध्यात्मिक जीवनाच्या व्यतीरिक्त पारिवारीक आणि सामाजिक जीवनाची सुद्धा झलक दिसते. शुभा सारख्या एखाद्या थेरींच्या उद्गारातच प्रकृतीचे वर्णन पाहायला मिळले. अंबपाली सारख्या थेरींचे उद्गार, ज्यात सांसारिक वैभवाचा उल्लेख मिळतो, काव्यशास्त्राच्या अनुपम उदाहरण आहे.

भिक्खूणीसंघाचे संघठन सुद्धा बरेचसे भिक्खूसंघाच्या आधारावरच झाले आहे. कुठलाही भेदभाव न करता, आध्यात्मिक जीवनात मग्न समाजाच्या सर्व स्तरातील महिलांसाठी त्याचे दरवाजे उघडे होते. राजपरीवारातील महिलांपासून ते दीन-दुःखी परिवारातील महिला संघात सामील होत्या. त्या सर्व सामाजिक विषमतांना त्यागून एकच पवित्र उद्देश्याने प्रेरित होऊन संघाची सदस्या (भिक्खूणी) बनल्या होत्या. त्या साधिकांच्या वैराग्याच्या मागे अनेक कारण होते. बहुतांश साधिकांनी प्रियजनांच्या वियोगाने आणि सांसारीक जीवनापासून कंटाळून संघात प्रवेश केला होता. सर्वांना उद्देश्य परम शांतीची प्राप्ती होता. अर्हत्वाच्या प्राप्ती नंतर निर्वाणाच्या परम शांतीची अनुभूतीमध्ये त्या सर्वांना एकाच स्वरात गाताना ऐकतात-- सीतिभूतम्हि निब्बुता अर्थात शीतिभूत झालेली आहे, उपशांत झालेली आहे.

थेरियों के उदानों से उस समय की महिलाओं की सामाजिक स्थिति पर भी प्रकाश पड़ता है। इसिदासि की जीवनी से मालूम होता है कि उस समय कुछ लोगों में तलाक की प्रथा प्रचलित थी। इसिदासि का विवाह तीन-तीन बार हुआ था। उस सामंत युग में बहुपत्नी प्रथा प्रचलित थी। कई थेरियाँ अपने उदानों में इस बात का उल्लेख करती हैं। उस समय नगरशोभिनियों की प्रथा भी प्रचलित थी। भगवान् बुद्ध ने उसके विरुद्ध अपनी आवाज उठाई थी। उनकी शिक्षाओं से प्रभावित होकर उस वृत्ति को छोड़कर कितनी महिलाएँ पवित्र जीवन व्यतीत करने लगीं। अंबपालि, अड्टकासि और विमला उनमें से हैं। वे अपने उदानों में उस जीवन का उल्लेख करती हैं। महिलाएँ विद्यालाभ कर विदुषी भी बन सकती थीं। कुंडलकेसी और नंदुत्तरा इसके उदाहरण हैं। शिक्षा ग्रहण करने के बाद दोनों देश में भ्रमण करती हुई धर्म और दर्शन के विषय में विद्वानों से शास्त्रार्थ करती थीं। धर्म के अनुसरण के विषय में भी महिलाएँ पुरुषों से स्वतंत्र थीं। यह बात रोहिनी तथा भद्दकच्चाना की जीवनियों से सिद्ध होती है। उस समय भी समाज में दुष्ट तत्व विद्यमान थे। भिक्षुणियों को भी उनसे सावधान रहना पड़ता था। शुभा थेरी के उदानों से यह बात स्पष्ट हो जाती है। उस परिस्थिति को ध्यान में रखकर बाद में भिक्षुणियों के अरणवास के विषय में कई नियम बनाने पड़े। इस प्रकार थेरियों के उदानों में उस समय की महिलाओं की सामाजिक अवस्था का भी एक चित्र मिलता है। अब हम तीन थेरियों के उदानों के कुछ अंश उदाहरण के रूप में देते हैं।

सोमा, राजगृह के राज पुरोहित की कन्या थी। भिक्षुणी हो विमुक्तिसुख प्राप्त करने के बाद एक दिन वह ध्यान के लिये अंधवन में बैठ गई। मार ने उसे साधना के पथ से विचलित करने के विचार से कहा -- जो स्थान ऋषियों द्वारा भी प्राप्त करना कठिन है, उसकी प्राप्ति अल्प बुद्धि वाली स्त्रियों द्वारा संभव नहीं। मार का उत्तर देते हुए सोमा ने कहा -- जिसका मन समाधिस्थ है, जिसमें प्रज्ञा है और जिसे धर्मं का साक्षात्कार हुआ है उसके मार्ग में स्त्रीत्व बाधक नहीं होता। मैंने तृष्णा का सर्वथा नाश किया है, अविद्या रूपी अंधकार समूह को विदीर्ण किया है। पापी मार! समझ ले आज तेरा ही अंत कर दिया है।

भगवान् बुद्ध की मौसी महाप्रजापति गौतमी ने, जो कि भिक्षुणी संघ की अग्रणी थी, अपने निर्वाण के पहले भगवान के पास जाकर उनसे अंतिम विदा लेते हुए कृतज्ञता के ये शब्द प्रकट किये -

हे बुद्ध वीर! प्राणियों में सर्वोत्तम! आपको नमस्कार। आपने मुझे और बहुत से प्राणियों को दु:ख से मुक्त किया है।........यथार्थ ज्ञान के बिना मैं लगातार संसार में घूमती रही। मैंने भगवान के दर्शन पाए। यह मेरा अंतिम शरीर है। बहुतों के हित के लिये (मेरी बहन) माया देवी ने गौतम को जन्म दिया है, जिन्होंने व्याधि और मरण से त्रस्त प्राणियों के दु:खसमूह के दूर किया है।

विमला, अन्य कई गणिकाओं की तरह, भगवान बुद्ध की शिक्षाओं से प्रभावित होकर प्रव्रजित हो पवित्र जीवन व्यतीत करने लगी। परमपद की प्राप्ति के बाद वह गाती है --

रूप लावण्य, सौभाग्य और यश से मतवाली हो, यौवन के अहंकार में मस्त हो मैं दूसरी स्त्रियों की अवज्ञा करती थी।........शरीर को सजाकर, व्याघ्र की तरह लोगों को फँसाने के लिये जाल बनाती थी, अनेक मायाएँ रचती थी। आज मैं भिक्षा से जीती हूँ, मेरा सिर मुंडित है, शरीर पर चीवर है। वृक्ष के नीचे ध्यानरत हो अवितर्क समाधि में विहरती हूँ। दैवी और मानुषी सभी कामनाओं के बंधनों को मैंने तोड़ डाला है। सभी चित्त मलों को नाश कर निर्वाण की परम शांति का अनुभव कर रही हूँ।

"परमत्थदीपनी" थेरीगाथा की अट्ठकथा है। यह पाँचवीं शताब्दी की कृति है और आचार्य धर्मपाल की है। इसमें थेरियों की जीवनियाँ और उनके उदानों की व्याख्याएँ हैं। इसलिए थेरीगाथा के समझने के लिये यह अत्यंत उपयोगी है।

हे सुद्धा पहा